इंसान अपने जीवन में रोटी के लिए न जाने क्या-क्या काम करता है। संसार के चलने के पीछे सारा खेल ही दो जून की रोटी का है। अगर रोटी का चक्कर न होता तो शायद सबसे आलसी जीव इन्सान होता। लेकिन रोटी कमाना भी आज के समय में आसान नहीं है। न जाने कितनी ठोकरें खाने के बाद रोटी का जुगाड़ होता है। सारा दिन पसीना बहाने के बाद ही कहीं पेट भरने के लिए रोटी मिल पाती है। मेहनत से कमाई गयी रोटी चैन की नींद देती है। क्या है रोटी की महानता और क्या-क्या करना पड़ता है रोटी के लिए आइये पढ़ते हैं ” दो जून की रोटी कविता ” ( Roti Par Kavita )

दो जून की रोटी कविता

दो जून की रोटी कविता

पसीने से लथपथ काया होती,
श्रम दिन भर का सँजोती
तब जाकर के मिलती है
दो जून की रोटी।

कभी ईंट का गट्ठा उठाया,
कभी नींव है खोदी
तब जाकर के मिलती है
दो जून की रोटी।

कभी मिली दुत्कार तो
कभी सहानुभूति समेटी
तब जाकर के मिलती है
दो जून की रोटी।

झाड़ू ,पोछा बर्तन धोए,
दिन रात इन्हीं कामों में खोए,
तब जाकर के मिलती है,
दो जून की रोटी।

कभी ईमान का इम्तिहान,
कभी सहना पड़ता अपमान।
तब जाकर के मिलती है
दो जून की रोटी।

वर्ग भेद की खाई चौड़ी
कीमत अपनी है न दमड़ी
बस अपने दोनों हाथों मिलती
दो जून की रोटी।

✍रश्मि लता मिश्रा


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