गांव की महिमा का वर्णन करती हुयी गांव पर हिंदी कविता

गांव पर हिंदी कविता

गांव पर हिंदी कविता

यूँ ही गाँव, गाँव नहीं कहलाता साहब,
कई पीढ़ियाँ बितानी पड़ती हैं गाँव में।

यूँ ही आटा-चावल नहीं बनती बालियाँ
चलकर फोड़ने पड़ते है छाले पाँव में।

लौकी,तोरी,ककड़ी,कैसे लगती डाली में।
खून-पसीना बहा,जब सूरज की छाँव में।

ये धरती भला कैसे सोना उगल जाती है,
जब पसीने से मरहम लगाते हैं घाव में।

ममता के अंकुर ऐसे ही न उगते गाँव में।
पग-पग विपदाएं मिलती हैं इस ठाँव में

जब लहू से सींचकर भी न पनपी फसलें,
तब कलेजा छलनी हो जाता है अभाव में।

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मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।

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