आप पढ़ रहे हैं हिंदी कविता – कंपन्न

हिंदी कविता – कंपन्न

हिंदी कविता - कंपन्न

कम्पन्न बन के श्वास से
चीखें सुनायी काल,
है रात्रि का विष वेला यहाँ
होती प्रभा बिछायी जान।

नवचेतना है आयी अभी
लिपटी हुयी अदृश्यनाल,
निज आशियाँ निर्मित यहाँ
है दंभ निति उसकी चाल।

बनते मुसाफिर है यहाँ
नित रोज उसकी नवढाल,
है बुद्धि का नाशक चक्र
गुण हैं मिले सर्वज्ञ ताल।

ताम का स्वामी तमपिता
आह्वाहन है उसकी राल,
है वृक्ष शुष्का यह मगर
नित रोज निकले असंख्य डाल।

घनघोर की वर्षा हुयी
\धुलते नहीं कलुषित थाल,
कैसा है तेरा रूप रंग
साकार ब्रह्म की तू कैसी छाल।

तू उदित था यह अवतरित
तूने रचाया खेल,
है अदालत तू न्यायधीश
विश्वबंदी निर्मित जेल।

पढ़िए :- हिंदी कविता “दरिद्रता”


पंकज कुमार यह रचना हमें भेजी है पंकज कुमार जी ने कोरारी गिरधर शाह पूरे महादेवन का पुरवा, अमेठी से

“ हिंदी कविता – कंपन्न ” के बारे में कृपया अपने विचार कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें। जिससे रचनाकार का हौसला और सम्मान बढ़ाया जा सके और हमें उनकी और रचनाएँ पढ़ने का मौका मिले।

यदि आप भी रखते हैं लिखने का हुनर और चाहते हैं कि आपकी रचनाएँ हमारे ब्लॉग के जरिये लोगों तक पहुंचे तो लिख भेजिए अपनी रचनाएँ hindipyala@gmail.com पर या फिर हमारे व्हाट्सएप्प नंबर 9115672434 पर।

हम करेंगे आपकी प्रतिभाओं का सम्मान और देंगे आपको एक नया मंच।

धन्यवाद।

 

Leave a Reply