मजदूर पर कविता

मजदूर पर कविता

मजदूर के भाग्य का कैसा, विपुल दुर्भाग्य होता है।
हजारों बँगले बनाकर स्वयं, फुटपाथ पर सोता है।

कमाने चार आने जो, आप पसीने में ही नहाता है,
वो ठिठुर-ठिठुर फुटपाथों पर, सारी ही रात रोता है।

दाल मखनी और पनीर तो बस सपने में खाता है,
हाँ वो मजदूर ही है जिसका खाने से समझौता है।

छोटे-छोटे बच्चे जिसके, खाने की राह निहारते हैं,
वो मजदूर सदा पीठ पर, जिम्मेदारियों को ढ़ोता है।

न चख पायेगा जिन फलों को,उन बागों में रहता है,
फसल न खा पाए जिसकी, उसी खेत को जोता है।

कभी सड़क, कभी पहाड़, कहीं इमारत की छत से,
मजदूर कैसे जिंदगी अपनी, सहतूतों सा खोता है।

मजदूर दिवस मनाकर भी, सम्मान जिसने न पाया,
निज अश्कों को वही मजदूर, बिन पानी ही धोता है।

पढ़िए :- मजदूर दिवस पर कविता “मैं मजदूर हूँ”


हरीश चमोली

मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।

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