पर्यावरण दिवस पर कविता ( Paryavaran Diwas Par Kavita )- प्रिय पाठकों 5 जून को पर्यावरण दिवस है। और इस पर्यावरण दिवस के महत्व को समझना हम सबके लिए उतना ही जरूरी है जितना कि हमारे लिए भोजन करना, सांस लेना आदि। प्रकृति ने हमें पंच तत्वों से बना यह जीवन दिया, जीवन जीने के लिए सारी जरूरतें पूरी की, किन्तु अब बात आती है कि हम अपनी प्रकृति के लिए कितने सजग हैं? हम सारी चीजों का उपभोग और उपयोग अपार मात्रा में कर रहे हैं किन्तु पर्यावरण सरंक्षण हेतु कुछ नहीं समझ रहे है।

तो क्या इस मौके पर हम ये शपथ ले सकते हैं कि हम भी अपनी प्रकृति के सरंक्षण के लिए अपना कुछ दायित्व समझेंगे और जो भी हमसे हो सके हम करने के लिए तत्पर हैं। फिर चाहे वृक्षारोपण हो, या प्रदूषण नियंत्रण,ध्वनि प्रदूषण,जल सरंक्षण या सफाई अभियान जहाँ भी जितना भी हमसे हो पायेगा हम इस प्रकृति के लिए अपना योगदान देंगे। तो आइए दोस्तों पढ़ते हैं पर्यावरण दिवस पर कविता :-

पर्यावरण दिवस पर कविता

पर्यावरण दिवस पर कविता

आज न जाने बैठे-बैठे,मन में दर्द झलकता है।
न जाने धरती माता का, स्वरूप क्यूँ बदलता है?

बदल चुकी है मानव भाषा, बदल चुकी है वाणी।
रूठी धरती, रूठा नभ और रूठ रहा है पानी।
बना अभिमानी है मानव, निज स्वार्थ में खोकर,
नियम विरुद्ध प्रकृति के जाकर, करता छेड़खानी।

पर्यावरण बदलने से, अब मन मेरा मचलता है।
न जाने धरती माता का, स्वरूप क्यूँ बदलता है?

ज्येठ माह की गर्मी में भी, आसमान कड़कता है।
धरती पर पड़ी दरारों से, जन मानस तड़पता है।
सूरज की किरणें भी अब, नया संदेश हैं नित देती।
परोपकार के बदले में, धरती कभी न कुछ है लेती।

पर्यावरण परिवर्तन से, मिलती फिर असफलता है।
न जाने धरती माता का, स्वरूप क्यूँ बदलता है?

अंगार सा ये ताप हुवा, जाने किसका श्राप हुवा?
थी गलती जो सजा हुई, या मानव से पाप हुआ?
पर्यावरण बिगड़ने से,पृथ्वी का संतुलन बिगड़ा,
जिस कारण धरती पर,है नित ही विलाप हुवा।

लगती आज शायद कोई, मानवीय निर्बलता है।
न जाने धरती माता का,स्वरूप क्यूँ बदलता है?

धरती पर देखो आज,हर कहीं गर्म लू चलती है।
लू से गर्म होकर फिर,जीवों की चर्म पिघलती है।
ज्येठ मास में भी कैसे अब,वर्षा भीषण होती है?
ऋतुवें भी नित ही क्यूँ अब,अपना स्वरूप खोती हैं?

अभी सोचले तू मानव,बिन वायु सब जलता है।
न जाने धरती माता का,स्वरूप क्यूँ बदलता है?

तपन से यह मिट्टी अब, जलता अंगार बनती है।
हरियाली ही धरती का,हर वक़्त श्रृंगार बनती है।
मानव कर्मों के फलस्वरूप,दोष धरा पर यह आया,
हे जननी! क्यूँ आज हमारी,कारागार तू बनती है?

हे वसुंधरा क्रोध त्यागो,मिलती हमें विफलता है।
न जाने धरती माता का,स्वरूप क्यूँ बदलता है?

गलतियाँ बहुत हुई मानव से,वृक्ष काटे,काटे पौधे ।
वनस्पतियों का नाश कर,विकास की खातिर रौंदे।
तुम देती हो दंड स्वयं माता,अपने ही समयानुसार।
तुम्हारे प्रकोप से ही धरा पर,मानव जाति गिरी औंधे।

अब वक्ष दो हमको माता,खत्म होती शीतलता है।
न जाने धरती माता का,स्वरूप क्यूँ बदलता है?

शांत हो जा धरती माँ,हम अभी से प्रण करेंगे।
लगाकर पेड़-पौधों को,हम वृक्षारोपण करेंगे।
सींचेंगे ममता से तुमको,खुशहाली लाने हित,
फिर से हम-सब मिलकर,तुम्हारा सरंक्षण करेंगे।

हरियाली से हम सबका,जीवन ये महकता है।
न जाने धरती माता का,स्वरूप क्यूँ बदलता है?

प्रकृति सरंक्षण भूल मानव,बस भक्षण में लीन है।
सरंक्षण जिसने किया नहीं, वो मानव कर्महीन है।
यह धरती इतना देती है,कि कोई न ऋण चुका पाएं।
हाथ जोड़कर हम भी तो,धरती माँ को शीश झुकाएं।

निज स्वार्थ में मानव निज,भविष्य को कुचलता है।
न जाने धरती माता का,स्वरूप क्यूँ बदलता है?

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रचनाकार का परिचय

हरीश चमोली

मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।

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