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हिंदी कविता – दग्ध
उम्मीदों की नाव खोजता
किन्तु मिला दग्ध।
प्रभात की कपाट खोलता गया
परन्तु मिला अंधकार दग्ध।।
निज स्वार्थ का पतन करता गया
किन्तु प्रसाद लोभ दग्ध ।
आलस्य की नगरी मिति नहीं
कायम रहा विश्व दग्ध।।
नेत्र ही संसार है पर
बनी हुई है दृष्टि दग्ध।
उत्पात है मचाता विश्वास मेरा
डगमगाता बेचारा दग्ध।।
इकलौता अहंकार तेरा है
इसलिए अविश्वास दग्ध।
तू रक्त की परिभास्षा था
इसलिए है लाल दग्ध।।
नैतिक गुणों का ब्रह्मचारी था
फिर भी बना दुराचारी दग्ध।
है सम्पूर्ण राष्ट्र में फैला
अभिन्न कन्याकुमारी दग्ध।।
नवनीत के प्रखर से उत्पन्न तू
गुणकारी दग्ध।
पूजा तेरी सर्वत्र है
किन्तु है तू काल दग्ध।।
मंदिर तेरा बना लेकिन
मूर्ति रूप सब में दग्ध।
चरित्र का व्यवसाय तुझ में
मूल्यों का अभिमान दग्ध।।
रणक्षेत्र का वीर तू
पर भरम विजयी दग्ध।
कल्पना की छाँव है
पर मिथ्या है धूप दग्ध।।
वस्त्र का कालिख उज्जवल
किन्तु निर्मल धूप दग्ध।
तू किनारे लौट जा
बीच मझधार है दग्ध।।
डुबाने वाला है नाविक
पतवार बनके घूमता दग्ध।
स्वाभाव के सनातन में
असभ्य का कुमगि दग्ध।।
कुल का कर्कट कुल में
कुटुंब का नाश दग्ध।
मानव हृदय छलावा है बस
कपोल राग अभिनय दग्ध।।
रचना समाज विशाल है
किन्तु है आधार बाद दग्ध।
जीवन की परिपाटी ऐसी
हर रंग मदमाटी दग्ध।।
चलता रहेगा अनंत चक्रव्यूह
मिटते रहेंगे अनंत अभिमन्यु दग्ध।
उम्मीदों की नाव खोजता गया
किन्तु मिला दग्ध।।
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यह रचना हमें भेजी है दीपक भारती जी ने कोरारी गिरधर शाह पूरे महादेवन का पुरवा, अमेठी से।
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