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हिंदी कविता आदमी

हिंदी कविता आदमी

आदमी आदमी को खाने दौड़ रहा है
आदमी ही है जो आज दवाखाने दौड़ रहा है
वो अस्पतालों के बाहर ऑटो में आरामफ़रमा
मांसपेशियों में जकड़ा कुर्सी पर कहीं जमा

ढेरों ट्यूब लगाए , बुज़ुर्गी में निरीह कहीं तड़पता
कहीं शादियों में महंगे लॉन में घास पर फिसलता
हनीमून पर वातानुकूलित होटेल में महंगी शैम्पेन गटकता
कहीं छोटे छोटे बिछौनों को प्रेम से धूप में सुखाता
हर जगह जहां देखो है वो आदमी ही ये बात पक्की है
पर सब कुछ ऐसा नहीं था हमेशा …

आदमी आदमी से बेहतर था एक जमाने में
जिस दिन अकेला था आदमी नितांत अंधेरों में
उस दिन भी अपनी अंगड़ाई के बीच मन के क़िले बना रहा था
आदमी ही था वो जो पहाड़ों पर झरोखे बना रहा था

सैकड़ों रिश्ते , कहानियाँ , ढेरों तस्वीरें , यादों का पुलिंदा
आदमी इन्हीं सब की सरगुज़शत में लगा था
आदमी को लगा वो स्थायित्व को पा चुका है
वो अमरत्व को नील चुका है , वो योग मुद्रा में है अब
किसी गहरी गुफा में ईश्वर से एकात्म कर चुका है
वो अब तथागत हो चुका है

अब अपने जीवन दर्शन की ज्योति से
लोगों को लाभान्वित करने के अथक प्रयास में है
आदमी को लगा वो चिर संतोष में आत्मलीन हो चुका है
फिर अचानक से क्या हुआ ?

एक स्वप्न तोड़ती बयार चली कहीं सुदूर से
एक लू चली प्राचीन क़िस्सों से होती हुई हमारी हथेलियों तक
हमारी नसों में तैरने को एक डायन डोली सवार चली
हम अपना खून का घूँट पी के रह गए मुसलसल
ज़ालिम वो मौत का पश्मीना ओढ़े रूह के कारोबार को चली

आदमी से आदमियत खींच ली गयी धीमे धीमे टोने से
उससे उसकी इंसानियत का मौजूँ दाम माँग लिया गया
आदमी ने दवा को अपने तजुर्बे से दुआ बना दिया
और बड़े सस्ते में उसे बाज़ार में बेच दिया
दुआ बाज़ार में खूब बिकी और दवा समंदर पार कर गयी
दवा वहाँ चली गयी जहां के आदमी ने उसकी क़ीमत समझी
दुआ सस्ते में सफ़र करती रही मुल्क में पीर फ़क़ीरों के बीच

पीपल के पेड़ के साये में लोग ऑक्सिजन का मंतर पढ़ते रहे
झाड़ फूंक दो टूक इलाज रह गया लोग टोटका जंतर गढ़ते रहे
ख़ानदानी दवाख़ाना आगे आए हाज़मे की दवा चलायी गयी
बुख़ार इस वतन का नहीं था मंतर सहला कर निकल गए
दुआ माथे पर बोसा लेकर बूढ़ी दादी की तरह गुज़र गयी
हाज़मे की दवा से हाज़मा ठीक हो गया जो कभी खरब ना था
अब आदमी के पास बचने को एक ज़रिया रह गया बेबसी में
आदमी जहां से चला वहीं को लौट गया

आदमी गुफा में एक मशाल लिए एकात्म में हो गया
वहीं देखा नुस्ख़े दोबारा ज़िंदगी के कोई रास्ता मिले
इस अबूझ तिलिस्म से बाहर आने का कोई सुराग मिले
इस उम्मीद में आदमी इंतज़ार में है आजकल
यहाँ वहाँ जहां तहां क़ैद तो ज़माना है ,पर आदमी कहाँ है ?

आदमी अपने वतन में विदेशी हो चला है
आदमी बीमार हो चला है
बुलबुला है पानी का आदमी हर तरफ़ फूट रहा है
ये वक्त रेत सा सरकता जा रहा है
ये आदमी ही है जो हर जगह मरता जा रहा है ।


रचनाकार का परिचय

शशांक शेखर

मेरा नाम शशांक शेखर है, मैं मिर्ज़ापुर का रहने वाला हूँ, मेरी उम्र 35 वर्ष है । यहाँ दिल्ली यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान से स्नातक की पढ़ायी करने के बाद यहीं के विधि संकाय से एल.एल.बी की पढ़ायी पूरी की । फिर यहाँ क़रीब दस साल से सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहा हूँ । साल 2017 में एडवोकेट ऑन रेकोर्ड की परीक्षा निकाली जिसके बाद यहाँ बहस करने का अधिकार प्राप्त हुआ । कॉलेज के दिनों से कविताओं में दिलचस्पी रही , रिल्के, नेरुदा , मुक्तिबोध , अज्ञेय, फ़ैज़ , गुलज़ार की कविताओं ने प्रभावित किया । सौ से ज़्यादा कविताएँ लिख चुका हूँ । और आगे भी लिखना जारी है ।

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