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जननी पर कविता

जननी पर कविता

प्रेम की अविरल नदी मैं
तु स्नेह का सागर है माँ,
चीर कर दीर्घ लहरों को
मैं तुझमें मिलना चाहता हूँ,

अंजुरी में ले शुभ्र कमल
और पावन शुचित नीर,
कर समर्पण खुद को मैं
चरणों में उतरना चाहता हूँ।।

छोड़ कर उन यादों को
मैं कैसे जी सकूंगा माँ,
गम विरह के क्षण भी मैं
ना कभी कह सकूंगा माँ,

आखिरी है लक्ष्य तू मेरा
तु जानती है दिल की बात,
यादों को करके समर्पित
निरंतर बह सकूंगा माँ,

अपूर्ण स्वप्न जो झोली में है
पुर्ण करना चाहता हूँ,
कर समर्पण खुद को मैं
चरणों में उतरना चाहता हूँ।।

कुंदन सा चमकता तन तेरा
चंदन सा महकता मन है माँ,
फूलों की लड़ियों पे मानों
ओस सा तु कण है माँ,

दूसरा कोई ना मेरे
नयनों में सिवाय तेरे,
पा गया जन्मों जन्मों का
आज रतन और धन मैं माँ,

मैं दिये की भांति अब
संग तेरे जलना चाहता हूँ,
कर समर्पण खुद को मैं
चरणों में उतरना चाहता हूँ।।

प्रेम की अविरल नदी……

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