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हिंदी कविता : बाल बलिदान
देखता हूँ आते जाते अक्सर
कच्ची-पक्की सड़कों पर।
इक रोटी के टुकड़े खातिर,
नन्हीं उम्र की नाजुक मेढ़ों पर।
लाचारी के चलते रथ पर,
महलों के बनते-उजड़े पथ पर।
कौड़ी फूटती न एक उनकी
फटी होती हैं जेबें बचपन की।
कहर बरसा ऐसा था उस पर
बचपन जीने का छीना अवसर।
छेनी हथौड़ी लिए हाथ जो
बचपन में ही तराश रहा पत्थर।
आंख गड़ाए तकता हर दिन
आंगन में खेलते बच्चों को।
बना रहा धूलित होकर जो,
कच्ची मिट्टी के मटकों को।
अमीर हुवे कुछ जन हैं जो,
नोच रहे नूतन पौधों को।
ललचाती आंखों से ताके,
चाट-पापड़ी के ठेलों को।
गरीबी के बोझ तले वह
खेल न पाया खेलों को।
गुब्बारे बेच रहा था जो
देख न पाया मेलों को।
क्षुदा शांत करने को वह
चला बेचने चाय रेलों में।
उदराग्नि से पीड़ित वह,
सोया चौक,खपरैलों में।
तरसती निगाहों में उसकी
धूमिल होता सर-सर बचपन।
हाथ फाउरिया,कुदाल उठाये,
पसीने से वह तर-तर बचपन।
कहने को तो,वस्त्र हैं लेकिन
फटे चीथड़ों पर टांके पचपन।
मित्र न कोई है संगी साथी
जिससे रख पाए वह अनबन।
जिम्मेदारी का बोझ कंधों पर
फिर भी मुश्कान लिए अधरों पर।
सर ढकने को छत न है उसकी,
सर्द रातों में सोया सड़कों पर।
आखर ज्ञान का न कोई पढ़ता
बस बचपन को धरती में गढ़ता।
चीखती हुई आंखों में अपनी
अनगिनत कहानियां है लिखता।
गैंती और बेल्चे से खोदकर
अपने बचपन को दफ़नाता।
एक वक्त की रोटी को अपनी,
मात-पिता सम ही अपनाता।
फूटी किस्मत या हालत को रोये।
नन्हीं सी उम्र में क्या-क्या खोए।
आज का कोई जिक्र नहीं,
और कल की कोई फिक्र नहीं।
बस जिये जा रहा है जैसे भी,
सहकर वर्षा,गर्मी,और शिशिर को।
भूख प्यास सब सहकर भी वह,
पाल लेता,है इस शरीर को।
सब कहते बाल मजदूर जिसे हैं,
सुनो!मजदूर नहीं मजबूर है वो।
जब ईश्वर ने जीवन दान दिया हो,
फिर क्यों किस्मत से दूर है वो?
संग कोई ऐसी वस्तु न उसके,
जिस पर हो अभिमान किया।
सब पाते माँ का आँचल जब
तब उसने बाल बलिदान किया।
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मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।
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Great this poem
True story some children
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Harish chamoli