प्रेम विरह कविता – यादों की सम्मां (प्रेमी की याद )
प्रिय पाठकों, आज आप सबके लिए प्रस्तुत है दर्द भरी प्रेम कविता जिसमे प्रेमी का विवाह किसी अन्य जगह हो जाता है , और फिर प्रेमिका उसको याद करते हुवे उसे फ़ोन करती है किन्तु प्रेमी अब उसका फ़ोन नहींं उठा पाता है, जाहिर सी बात है अब वह अपनी नई शुरुवात जो कर रहा है , भगवान् ऐसा मोड़ जीवन में कभी किसी को न दे ,बिछुडन का दुःख किसी मौत से कम नहींं होता है , पूरी दुनिया नीरस लगती है और आप पल-पल हर पल बस अपने साथी की यादों में खोये रहते हैं और उसकी फ़िक्र आपको आज भी सताती है , और समय और हालातों से जूझते हुए आप हार मान जाते हैं तो आइये अपने प्रेमी को याद करते हुवे पढ़िए कवि अनमोल रतन जी की रचना –
प्रेम विरह कविता
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।
जो कभी फ़ोन मेरा उठाते नहीं हो।।
मेरी बातें सुनकर तुम हसते थे पहले,
अब मुझें देख कर मुस्कराते नहीं हो।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।।
बैठे रहते थे घंटो मेरी राह में तुम,
क्या हुआ अब नजरें मिलाते नहीं हो।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।।
हम ना रूठे दुआं ये करते थे हरपल,
कि अब रूठतें हैं तो मनाते नहीं हो।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।।
जब मिलना विछड़ना था खेल ए मुकद्दर,
तो फिर कियूँ मुझे आपनाते नहीं हो।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।।
बेवफा बेवफा कहते रहते हो हरदम,
गर फिर भी हमे तुम भुलाते नहीं हो।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।।
ज़रा सी चोट भी रतन दिखाते थे सब को,
पर जख्म गहरा भी अब दिखाते नहीं हो।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।।
क्या यादों कि सम्मां जलाते नहीं हो।
जो कभी फ़ोन मेरा उठाते नहीं हो।।
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है कवि अनमोल रतन जी ने रायबरेली, उत्तर प्रदेश से।
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