अनुगति कविता

अनुगति कविता

अनुगति कविता

पंचभूत से निर्मित ये तन
अनुगति में सोता है।
भ्रमण आत्मा का लेकिन
जनम जनम का होता है।।

मोहमाया के जाल में फंसकर
खोता नित निज स्मृतियाँ
पूर्व जन्म के कर्मों से फिर
लिखता नित निज नवकृतियाँ
सुखदुख के चक्रों में उलझ के
खुद हंसता खुद रोता है
पंचभूत से निर्मित ये तन
अनुगति में सोता है।

सुबह शाम जपता ईश्वर को
सुख निज का वो माँगे हरपल
हाथ थमा के हाथ प्रभु के
उसकी इच्छा दे जो भी कल
कर्मयोग ही बदले रेखा
मन में धीरज होता है
पंचभूत से निर्मित ये तन
अनुगति में सोता है।

नर तन लेकर अवतारी ने
लीलाऐं नित नई रचाई है
जन्म मरण का पाठ पढा़या
महिमा कर्म बताई है
अजर अमर आत्मा के बंधन
मिलन विरह तन ढोता है
पंचभूत से निर्मित ये तन
अनुगति में सोता है।

भाव कर्म से जुड़ जायें जब
विवश हों ईश्वर फल देने को
शुद्ध भाव से कर्म किये जा
हंसते हुये जा मुक्ति धाम को
बूँद समाई सागर में जा
मिलन प्रभु से होता है
पंचभूत से निर्मित ये तन
अनुगति में सोता है।

भगवत गीता कुरान भी पढ़ले
माया असर दिखाती है
मरण किसी निज प्रियजन का
मन विचलित कर जाती है
कुछ दिन शोक मनाता इंसा
खेत वही फिर बोता है
पंचभूत से निर्मित ये तन
अनुगति में सोता है।

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