ग़ज़ल – इंसानियत से दूर है इंसान इन दिनों | Ghazal Insaniyat Se Door Hai

आप पढ़ रहे हैं आदरणीया कविता सिंह “वफ़ा” जी द्वारा रचित ( Ghazal Insaniyat Se Door Hai ) ग़ज़ल – इंसानियत से दूर है इंसान इन दिनों :-

ग़ज़ल – इंसानियत से दूर

ग़ज़ल - इंसानियत से दूर

होती नहीं है अपनों की पहचान इन दिनों!
कैसे बचाई जाए भला जान इन दिनों !!

इंसान बन गया है क्यूँ हैवान इन दिनों !
महफ़ूज़ बेटियों की नहीं आन इन दिनों!!

मज़लूम की भी चीख़ों का होता नहीं असर,
ख़ामोश क्यूँ तू बैठा है भगवान इन दिनों !

औसान गुम हैं ऐसे दरिंदों को देख कर,
इन भेड़ियों की कैसे हो पहचान इन दिनों !

इंसाफ़ की उमीद भी कैसे करे कोई ,
अँधा है जब के अद्ल का मीज़ान इन दिनों !

नफ़रत बढ़ी है मुल्क़ में अब इतनी के यहाँ ,
बे मौत मारे जाते हैं इंसान इन दिनों !

हैरान है ‘वफ़ा’ के भला ऐसा क्या हुआ ,
इंसानियत से दूर है इंसान इन दिनों !

पढ़िए :- ग़ज़ल – फ़सादी कहानी हैं अख़बार में


कविता सिंह वफ़ायह ग़ज़ल हमें भेजी है आदरणीया कविता सिंह जी ने। आप एक सामान्य गृहणी हैं। आप हिंदी विषय में परास्नातक हैं और ग़ज़ल , कविताएँ , मुक्तक , कतअ , दोहा गीत आदि लिखने में रूचि रखती हैं। अनेकों साझा संकलन और पत्र पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं को स्थान मिला।

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