Dard Bhari Kavita आप पढ़ रहे हैं दर्द भरी कविता ” दुःखी था मन ” :-

Dard Bhari Kavita
दर्द भरी कविता

Dard Bhari Kavita

दुःखी था मन मेरा पर मैं
राह में चलता चला गया,
अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

ना बुरा कहा ना भला कहा
ठुकरा दिया सब कुछ,
उड़ने की तमन्ना थी मगर
पतंगो में कटता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

चंद सपनें और ख्वाहिशें
टूट चुके थे दोनों,
किस्मत रूठी,खामोश राह
मन भटकता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

मन में ना उतर सका कभी
मन से उतरता रहा सभी के,
जमी थी धूल चेहरे पर
दर्पण बदलता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

कड़ी धूप और नंगे पांव
आँधीयों से घिरा जीवन,
अपने गमों का हिसाब नहीं
सबके तोलता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

परछाई सा मुझमें कहीं था
चंद आंसुओ का सैलाब,
अन्तर्मन खुलते ही शब्दों की
बूंदो को बटोरता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

जिन पत्थरों को हमने
साँसों धड़कनों से नवाजा,
उसको जुबां मिली तो
दिल तोड़ता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

दिल टुटा था मेरा भी कभी
अपनों से जुदाई के बाद,
बातें है कहूं मगर किससे
मन ये बोलता चला गया।

अपनों से जुड़ने की बजाय
टुकडों में बंटता चला गया।

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