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हिंदी कविता हूँ मैं बेशरम

हिंदी कविता हूँ मैं बेशरम

यूँ तो हम बेशरम ना थे
मगर जमाने वालो ने हमें बनाया
अगर अपनो के लिए आवाज
उठाने से होता है बेशरम तो हाँ
हूँ मैं बेशरम ।।

अपने अधिकार के लिए लड़ने से
होता है बेशरम तो हाँ
हूँ मैं बेशरम ।।

गलत और सही में सही को चुनने से
अगर होता है बेशरम तो हाँ
हूँ मैं सबसे बड़ी बेशरम ।।

और मैं बेशरम ही सही जनाब
कम से कम गलत के खिलाफ
आवाज तो उठाती हूँ ।
औरों की तरह नहीं जो चुप चाप
भीड़ में खड़े होकर तमाशा देखें ।।

इज्ज़त और संस्कार की बातें तो
आप हम से मत हीं किया कीजिये जनाब
कियोकी इज्ज़त करने तो हमें भी आती है
मगर उनकी जो इज्ज़त करने के लायक हो ।
और रही बात संस्कार की अपनी माता पिता के
दिए हुऐ संस्कार तो हम में बहुत है ।।

हमें तो बेशरम ही रहने दो जनाब
क्योंकि हमें नहीं आती औरों की तरह
सादगी का मेकप पहन कर नौटंकी करना ।

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मोंजू लिंबूयह कविता हमें भेजी है मोंजू लिंबू जी ने लखीमपुर, असम से।

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