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अनुराग पर कविता
अनुराग के बिना, जीवन होता है नीरस।
प्रेम की गंगा में ही, बहता है अमृत रस।
कवि मन प्रेम रस में डूब, छेड़ता है जब वीणा के तार।
झूम उठते है दीवाने, प्रेम में वीणा की झंकार।
हे प्रिय सखी सुना, तू कोई प्रेम कथा।
कैसे तेरे मन में उमड़ा? यह अनुराग अथा।
मैं सुध बुध खो बैठी, मन मेरा हुआ बावरा।
मेरा चित चुराया, मनमोहक सांवरा।
अनुराग की बेल, नित नई जाती है खिलती।
मैं धुन की पक्की, गई उसकी ओर खींचती।
प्रेम का खेल ही, अजब गजब है निराला।
दुनिया समझे पागल, वह प्रेम में है मतवाला।
पूरी दुनिया ही होती है, अनुराग की भूखी।
प्रेम सागर में डुबकी लगाकर, होते है सब सुखी।
माथे की बिंदी, मांग का सिंदूर।
हाथ का कंगना, पैरों की पायल।
प्रेम दीवानो को करती है घायल।
तीन नदियों का संगम, कहलाता है प्रयाग।
जीवन में आए हो,तो चंहू ओर फैलाओ अनुराग।
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