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घर के बंटवारे पर कविता
तन्हाईयों का शोर फिर से,
गूँजने लगा है शहर में।
जाने क्या से क्या हुआ ये,
सोच रहे हैं डर ही डर में।
कुछ रिश्तेदारों के सम्मुख,
बैठ गए सब आँगन में,
बँटवारे का माहौल जब से,
तैयार हुआ मेरे घर में।
इस कमरे से,उस दुकान तक,
मकाँ की छत को बाँट दिया।
अलमारी में रक्खे माँ के,
कुछ कपड़ों तक को छाँट दिया।
कैसा दस्तूर है दुनियाँ का यह,
किसने यह रीत बनाई है?
घर में रक्खी रोटी तक को,
टुकड़ों में किसने काट दिया?
जब घर में रक्खी हर एक चीज की,
हो गयी हिस्सेदारी।
तब सोच में डूब गए माँ-बाप,
किसकी हैं हम जिम्मेदारी?
बिलख-बिलखकर माँ रोई,
बाप अंदर से कुछ यूँ रोया था।
आसमान ने जैसे अपने सारे,
तारों को आज खोया था।
कल तक जो थे साथ वो सारे,
बर्तन बाहर बिखराये हैं।
घर की एकता पर आज यूँ,
संकट के बादल मंडराये हैं।
बँटवारे की कहानियाँ जो भी
पढ़ी कभी थी किताबों में,
आज हकीकत बन वो हमारी,
आंखों के सम्मुख आये हैं।
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रचनाकार का परिचय
मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।
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धन्यवाद।
बहुत ही प्यारी रचना ❤❤❤
धन्यवाद प्रदीप जी