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Bhagwan Par Kavita
भगवान पर कविता
मंदिरों के द्वार पर
रस्में सारी निभाई
घंटी, शंख की गूँज थीं
पर आवाज़,तुम्हारी ही नहीं आई।
प्रार्थनाएँ की बहुत
ना जाने कितनी बार
अजस्र स्वर फैला था
अनहद नाद सा प्यार।
सुख दुख,दोनों ने हीं तुम्हें
याद किया कई कई बार
तुम छुपते क्यों रहे….
है तो तुम्हारा ही संसार।
कोई कितना माँग पायेगा
जितना तुम में समाया है
एक बोते अनेक पाते
चारों तरफ़ देखो,तुम्हारा हीं नज़ारा है।
हवाएँ बहतीं रहीं हैं
साक्षी तुम्हारी रहीं हैं
दिया है तुम्हीं ने,यह अमोल उपहार
दिखा दो अब,अपना अस्तित्व और द्वार।
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है इली मिश्रा जी ने।
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