धूप पर कविता
धूप पर कविता
बादलों की झुरमुट
से झांकता सूरज
मानों खेलता नन्हा
ओज से भरा
बालक झांक रहा हो,
चमकता तेज
सुनहरा बदन
रक्त लालिमायुक्त
धीरे धीरे
मानव दुनिया में
कदम रख
एक टक ताक रहा हो,
मानव में कुलबुलाहट
शुरू हो गई
आहट पाते ही
सूरज का,
किसी अपने
जीवन का आधार
सा इसे
हर कोई आक रहा हो,
हर्षित तन मन
खिलते मुस्कराते पुष्प
गुनगुनाते भौरों की गूंज
चिड़ियों की चहचहाहट
के कलरव गीत,
मानों
पूरी दुनिया ही
बधाई गीत गा रहा हो,
तन मन मोहक
धूप की सुंदर तेज में
अपने आप को
आन्नदित भाव में विभोर
होने को
सब के सब मांग रहें हो,
यही तो है
जाड़े की धूप
की अपनी रूप
खीच लेता है सबको
अपनी ओर
कर देती है
सबको भाव विभोर
खड़ा कर देती है
घर के बाहर
खुले आसमान के
नीचे
फिर मिलता है
आनन्द की हिलोर
सब लेते हैं
जाड़े की धूप।
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।
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