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ग़ज़ल संस्कार चाहिए

ग़ज़ल संस्कार चाहिए

घटती घटनाएँ कहतीं हैं,मानवता धर्म शर्मसार हो चुकी।
मानवता के पुजारी अब तो आओ,धरा बेजार हो चुकी।

कफन का टुकड़ा भी नसीब नहीं हो रहा है देखो मधुर।
दो गज जमीन नसीब नहीं,धूमिल सारे संस्कार हो चूकी।

बंद बोतलों में पानी,अब तो सासें भी बिकने लगी हैं।
लगता है प्रकृति से बहुत ही ज्यादा खिलवाड़ हो चुकी।

काट धरती वीरान पड़ी है,जिससे गली सुनसान पड़ी है।
अब भी सुधर जाओ मधुर,धरती अब बेजार हो चुकी।

चंद रुपयों खातिर जिंदगी दांव पर,इंसानियत शर्मसार है।
बहुत कमाया जिंदगी में पैसे,लेकिन सब बेकार हो चुकी।

बीमारी के नाम पर देखो कितनी हो रही है कालाबाजारी।
भूख से मर रहे हैं लोग,अब इंसानियत तार तार हो चुकी।

दो दो हाथ मिल बढ़ो सभी,चरामेति सा संस्कार चाहिए।
अब तो अवतार लो प्रभु,मनुज का जीवन खार हो चुकी।

पढ़िए :- ग़ज़ल न तुम ही मिलोगे


सुन्दर लाल डडसेना "मधुर"

यह कविता हमें भेजी है सुन्दर लाल डडसेना “मधुर” जी ने ग्राम-बाराडोली(बालसमुंद),पो.-पाटसेन्द्री तह.-सरायपाली,जिला-महासमुंद(छ. ग.) से।

कवि परिचय

नाम – सुन्दर लाल डडसेना”मधुर”
पिता– श्री जलधर डडसेना
शिक्षा – एम.ए.(हिन्दी,अर्थशास्त्र,इतिहास), पीजीडीसीए,डी.एड.
व्यवसाय – सहा.शिक्षक(एल.बी.)
साहित्य सेवा (विवरण) – पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ,कविताएं व लेख प्रकाशित,
साझा संकलन- मातृभूमि,पहल एक नई सोच,कलाम,आर्यावर्त,नया गगन,साहित्य सरोवर लाडो,जननायक,सरस्वती, कविता के संगम पर,चमकते कलमकार भाग2,वृक्ष लगाओ वृक्ष बचाओ,शब्द सारथी,चलते चलते,साहित्य लहर,रंग दे बसंती में कवितायें संकलित।

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