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हिंदी कविता गुमराह

हिंदी कविता मृगमरिचिका

हम मनाते रहे बार बार,
वो हर बार बिछड़ बैठे।

मुझे यकीन था जिसपर,
वो हमें ही गुमराह कर बैठे।

हम देते रहे राह उसे,
वो मेरा ही पथभर्ष्ट कर बैठे।

नशे के नाम से दूर रहते हैं हम,
वो हर बार मुझे नशेड़ी कह बैठे।

चाहा था सूख दुःख बाटूंगा,
वो हमें ही दुखी कर बैठे।

देखते रहे वो अपना ही खुदगर्ज,
हम उन्हें अपना अर्ज कर बैठे।

मनाते रहे वो जश्न साथ हमारे,
हम है उन्हें अपना समझ बैठे।

डरावना है मौत का मंज़र,
वो मेरी मौत की तलक ले बैठे।

करता भरोसा बार बार उसपर,
फिर भी हमें गुमराह कर बैठे।

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रचनाकार का परिचय

नटवर चरपोटा

यह कविता हमें भेजी है नटवर चरपोटा जी ने नई आबादी गामड़ी, प. स. तलवाड़, ज़िला बांसवाड़ा, राजस्थान से।

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