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कविता सोच रही हूँ मैं

कविता सोच रही हूँ मैं

सन्नाटे में किसकी आवाज़ सुनाई देती है
अंधेरे में क्यों आहट महसूस होती है
तनहा दीवारें क्यों चिल्ला रही
जाने किसकी यादें कानों में गूंज रही

डर से दोस्ती अच्छी नहीं पता था मुझे
पर प्यार ही हो गया ये कहा ख़बर थी मुझे
सुकून के 2 पल मिल जाए तो नसीब होगा
सोचा जब तेरा हाथ मेरे हाथ में होगा

तू क्या सपना था जो टूट गया
या राही था जो रूठ गया
मन क्यों इतना उदास है
जबकि तू मेरे पास है

दुनिया को हमारी दोस्ती रास ना आयी
प्यार तो दूर दोस्ती भी ना रह पायी
दिल के हर कोने में ढूँढ रही हूँ तुझे
तू कब मेरे पास आए वही सोच रही हूँ मैं;
वही सोच रही हूँ मैं

पढ़िए :- प्रेम विरह कविता “यादों की सम्मां”


रचनाकार का परिचय

नेहा धनोटिया

यह कविता हमें भेजी है नेहा धनोटिया जी ने।

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