Nadi Par Kavita – आप पढ़ रहे हैं नदी पर कविता :-
Nadi Par Kavita
नदी पर कविता
काव्य की जननी,
प्राण प्रदायिनी नदियां..
लेखनी बना लेती है सूर्य की
अनगिनत रश्मियों और चन्द्रकिरणों को ।
लिखा जाता है अद्भुत काव्य प्रकृति की छांँव तले।
अपने काव्य से हिमखंडों को पिघला…
बह निकली हैं नदियां जीवनदायनी बन।
चंचल, उन्मुक्त, खिलखिलाती… लहराती. . ।
झरने को सुनाती है अपनी मधुर कविता..,
अपनी धड़कनों का संगीत….
जो सुनाई देता है कल- कल निनाद सा मोहक।
कान लगाकर सुनते झरने
आह्लादित हो जाते हैं नदी के प्रेम काव्य से।
रोकना चाहते हैं नदी को लेकिन अपनी धुन की पक्की,
चल पड़ती है नए मार्ग ढूंँढ़….अनजानी राहों पर।
मार्ग ढूंँढती मैदानों में आ,
उतारती हैं अपनी सुस्ती।
कुछ पल शांत हो धीरे बहकर।
तटों पर अनगिनत अमराई, देवदार
और ताड़ जैसे वृक्षों की श्रंँखलायें
संगीत वाद्ययंत्रों की तरह लहराकर
स्वागत करते हैं नदी का।
मुस्कुरा जाती है नदी
बढ़ने लगती है आगे।
नदियों की संपदा , शैवाल, कवक
हरी काई, रंँगबिरंँगे पत्थर और जीवजंतु
इंद्रधनुषी छटा बिखेरते
नदियों के राजसी ठाठ
और उनके प्राकृतिक सौंदर्य के परिचायक हैं।
सौंदर्य की देवी सी निर्मल नदियां
चल पड़ती हैं जीवन दायनी बन प्यार बांँटनें।
रुकना नहीं भाता उन्हे।
प्रवेश कर जाती है
लालची, स्वार्थी संसार में।
चमक जाती हैं कितनी ही आंँखे
उन्हें नौचने खसोटने के लिए।
गंदगी, लाशों का बोझ
उनके प्राकृतिक सौन्दर्य को हरने लगता है।
लहूलुहान , कलुषित हो जाती हैं नदियां
तो बरस पड़ती हैं तेजाबी बारिश रूपी काल बन।
कुछ जो दम तोड़ने लगती हैं सूख जाती हैं
वो भी मुनाफाखोरों की आंँखो से नहीं बच पाती हैं।
तलहटी मै व्याप्त बालू की भी
तस्करी कर धन्ना सेठ बनना चाहते हैं।
पहाड़ों को भी कहां छोड़ा है मानुष ने
बिकने लगे हैं पहाड़ भी।
झुके नहीं मानुष के आगे तो तोड़ दिए गए।
आक्रोशित हो उठे पहाड़ ,
ढह गए भरभरा कर।
बंद कर दिए रास्ते स्वार्थी मनुष्य के आने के।
नदियों के सब्र का बांध जब टूटा एक दिन,
बाढ़ बन तोड़ दिए सारे बांँध और मार्ग….
मनुष्य द्वारा निर्धारित।
बहने दो नदियों को! उनकी चाल से..।
प्रकृति के लिए आसान है
मानुष को विवश कर घुटने टेकने,
माफी मांगने देने पर मजबूर करना।
जब तक …..
नदियां हैं, पहाड़ हैं, झरने हैं
तालाब, पोखर , जंगल हैं
हमारा और कविताओं का
अस्तित्व भी तभी तक है।
स्वार्थी मानव!
जानते तो हो पर मानते नहीं तुम…
कि आदि काल से ही
कविताओं की जननी नदियां है।
ओ हमजात मानव !
शायद देर हो जाएगी तुम्हें समझने में।
विनाश और काल …
साक्षात चाबुक लहरा रहे हैं।
तुम शायद देख नहीं पा रहे हो!
संकेत प्रकट हो रहे है धरा पर संकट के…
और तुमने अभी भी आंँखे मूंँद रखी है।
कानों में रुई लगा.. कान भी बंद कर रखे हैं।
मस्त हो तुम स्वार्थ सिद्धि में अभी भी।
शायद यही सच होगा….
“विनाश काले विपरीत बुद्धि”।
पढ़िए :- गंगा जी पर कविता ” गंगा नदी ही नहीं है “
रचनाकार का परिचय
नाम : निमिषा सिंघल
शिक्षा : एमएससी, बी.एड,एम.फिल, प्रवीण (शास्त्रीय संगीत)
निवास: 46, लाजपत कुंज-1, आगरा
निमिषा जी का एक कविता संग्रह, व अनेक सांझा काव्य संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित हैं। इसके साथ ही अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं की वेबसाइट पर कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं।
उनकी रचनाओं के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया है जिनमे अमृता प्रीतम स्मृति कवयित्री सम्मान, बागेश्वरी साहित्य सम्मान, सुमित्रानंदन पंत स्मृति सम्मान सहित कई अन्य पुरुस्कार भी हैं।
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