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विद्यार्थी जीवन पर कविता
Vidyarthi Jivan Par Kavita

विद्यार्थी जीवन पर कविता

खेल खेल में शिक्षा हो पर
शिक्षा को खेल समझ बैठे,
अब राजनीति के मंचों पर
तित्तिल सा खूब उलझ बैठे।

न इन्हें पड़ा तेरे रोजी का
न जीवन का न रोटी का,
न  दर्द दवाई खर्चे का,
शादी बेटे या बेटी का।

कोई रिक्शा खींचे सड़कों पर
कोई सब्जी बेचे सड़कों पर,
मां बाप के सपने कौन सुनें
वो कहर ढहाते लड़कों पर।

न नोकरी न रोजगार कहीं
पढ़ रहे लगाये आस यही,
आज नहीं तो कल ही सही
निकलेगा कोई राह कहीं।

जब निकला कोई चांद ईद का
कर रहे तैयारी त्याग नींद का,
हो गयी परीक्षा तो परिणाम नही
परिणाम सही तो कहीं नाम नहीं।

अब तो पेपर का यह हाल हुआ
सुन सुन कर जी बेहाल हुआ,
आंखों से आंसू गिरते देखा
खुद से नफ़रत करते देखा।

नफरत सियासी वालों ने
वोटों के गहरी चालों में,
कौरव सा पासा खेल गये
आशा पर पानी फेर गये।

कोई पहले छीन लिया पेंशन
कोई छीन रहा रोजी रोटी,
जब दे न सको तो छीनो न
क्यों बुझा रहे बुझते ज्योति।

मां आस लगाए है बैठी
न बुझने दो घर की ज्योति,
हो गये सयाने बेटा बेटी 
क्यों बुझा रहे बुझते ज्योति।

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रचनाकार का परिचय

रामबृक्ष कुमार

यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।

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