पढ़िए रामबृक्ष कुमार जी की ” बदलते रिश्ते कविता “

बदलते रिश्ते कविता

बदलते रिश्ते कविता

अब तो रिश्तों पर भरोसा न रहा

रिश्तों का रंग
अपनों के संग

होते हैं गाढ़े
सदा के लिए
न होते दुरंग

न होंगे
कभी भी
न बदलेंगे 
ये बनते रिश्ते,

ये पवित्र
अनमोल
सुवाच
मजबूत

भरोसे पर टिका रिश्ता न रहा,
अब तो रिस्तों पर भरोसा न रहा। 

रिश्ते,
बहनों संग पवित्र
भाइयों का बल
पिता का प्यार
मां की ममता

आत्मविश्वास
पड़ोसियों,
गैरों में
अपनेपन के

सस्ता रिश्ता अब सस्ता न रहा,
अब तो रिश्तों पर भरोसा न रहा। 

रिश्ते,
बनते हैं
बिगड़ते हैं
टूटते हैं
जुड़ते हैं

पर अब
रिश्ते,
बदलने लगे हैं

अब कोई रिश्तों का प्यासा न रहा,
तभी तो रिश्तों पर भरोसा न रहा। 

रिश्तों में
घुल रहे हैं
कड़ुआहट
चिड़चिड़ाहट

रिश्तों में
बन रही हैं 
दुरियां
मजबूरियां
बेखौफियां
अब पता नहीं क्यों!

मिठास रिश्ते की अभिलाषा न रहा,
तभी तो रिश्तों पर भरोसा न रहा। 

रिश्ते,
बदल गये
स्वार्थ में
विश्वासघात में
लालच
परिहास में
कलह
कुरंग
कर्कश 
व्यवहार में

अरे!अब 
रिश्ते का ढांढस दिलासा न रहा,
अब तो रिश्तों पर भरोसा न रहा। 

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रचनाकार का परिचय

रामबृक्ष कुमार

यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।

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