हिंदी कविता : ग़ज़ल की कहानी
वक्त की उगलती आग गज़ल,
तब होती बाग ओ बाग गज़ल।
ईरान से लेकर आई है,
भारत में ये बैराग गज़ल।
कई साल लगाते हैं शायर,
तब बनती है बेदाग़ गज़ल।
अश्कों का दरिया आंखों में,
दे जाता एक चराग गज़ल।
उर्दू की है महबूबा ये,
हिन्दी का है ये राग गज़ल।
गालिब औ फैज के लिए बना,
जिन्दगी का आधा भाग गज़ल।
छोड़ दिया, कुछ कह डाला,
मीर, दुष्यंत, फिराक़ गज़ल।
लिखी गज़ल हुए को गा बैठे,
गुलाम अली, चंदन दास गज़ल।
जगजीत सिंह ने गाया जिसे,
निदा फाजली का दिमाग गज़ल।
इतनी सच्ची, इतनी सफेद,
जैसे समुद्र की झाग गज़ल।
महबूब के लिए लड़ाई है,
महबूबा के लिए त्याग गज़ल।
कहीं मीठा शरबत बन जाए,
कहीं जहरीला ये नाग गज़ल।
कभी लाल मिर्च सी कड़वी ये,
कभी अमरूदों का बाग गज़ल।
कभी चाल मस्त हाथी की है,
कभी होती भागमभाग गज़ल।
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डा. गुरमीत सिंह खालसा कालेज, पटियाला ( पंजाब ) से गणित विषय में प्राध्यापक के पद आसीन हैं। आप मर्यादित और संजीदा भाव के धनी होने के साथ-साथ आप गुणीजनों और प्रबुद्धजीवी में से एक हैं। आप अपने जीवन के अति व्यस्ततम समय मे से कुछ वक्त निकाल कर, गीत और सँगीत के शौक के साथ रेख्ता, शेर-ओ-शायरी को अवश्य देते हैं। आपकी गणित विषय पर 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
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