कविता जीने का सहारा हूं मैं | Kavita Jeene Ka Sahara Hun

आप पढ़ रहे हैं ( Kavita Jeene Ka Sahara ) कविता जीने का सहारा हूं मैं :-

कविता जीने का सहारा हूं मैं

कविता जीने का सहारा हूं मैं

न महलों बीच उजाला हूं मैं
न ज्वालामुखी का ज्वाला हूं मैं

न आसमान का तारा हूं मैं
न मेघ बीच चंचल चपला,
न अग्नि बीच अंगारा हूं मैं

मन उदास जीवन निराश
हर दिन जिनका होता उपहास
बच्चे जिनके नंगें भूखे,
मां के स्तन सूखे सूखे,

इनके जीने का सहारा हूं मैं
बहता दूध का धारा हूं मैं ।

न नैनो का तारा हूं मैं,
न कुल का उजियारा हूं मैं
न मेरा कोई जाति धर्म,
न संविधान का धारा हूं मैं,

क्यों जन्म हुआ ईश्वर इनका
जीवन नर्क बना जिनका,
घुटनों पर सिर लिए बैठा
मानो दुनिया से है रूठा

सूखे नदियों सी आंखों में
बहती आंसू -धारा हूं मैं
इनके जीने का सहारा हूं मैं।

पढ़िए :- हिंदी कविता अपना अपना भाग्य | Hindi Kavita Apna Bhagya


रचनाकार का परिचय

रामबृक्ष कुमार

यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।

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धन्यवाद।

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1 Response

  1. Avatar Rambriksh says:

    Rambriksh, Ambedkar Nagar
    Please accept me and my poems
    krambriksh683@gmail.com

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