आप पढ़ रहे हैं ( Kavita Sari Umra Gujari Humne ) किसान के दर्द पर कविता सारी उम्र गुजारी हमने :-
कविता सारी उम्र गुजारी हमने
सारी उम्र गुजारी हमने, किसान बन खेती करने में।
शीत,ताप सब सहते है, पीछे नही श्रम करने में।
भोर हुई निकल पड़ते, ले कुदाली अपने संग।
खूब पसीना बहाते, मेहनत से होते सब दंग।
खेती होती जा रही है, निरंतर घाटे का सौदा।
सरकारें भी चुपचाप है, नही दे पाई कोई फायदे का मसौदा।
इनके भी होते है सपने, ऐशो आराम करने के।
फसल की आय काम आती है, केवल उधारी चुकता करने के।
अनिश्चित वर्षा व प्रकोप से,पड़ते रहते है अकाल।
मजबूरी का बेजा फायदा,उठाते है लालची दलाल।
सारी उम्र गुजारी हमने, किसान बन खेती करने में।
पीढ़ियां गुजर जाती है, ऋण का ब्याज भरने में।
ऋण में ही पैदा होते, ऋण में ही मर जाते है।
पेट की आग बुझाने में, सिर के बाल सफेद हो जाते है।
अन्नदाता के दर्द को, सरकारों को चाहिए समझना।
अब इनसे और ज्यादा, नहीं चाहिए उलझना।
सारी उम्र गुजारी हमने, किसान बन खेती करने में।
एक-एक पाई जोड़ी,पर पेई नही आई भरने में।
सैनिक सा कठोर जीवन, श्रम के ये सच्चे पुजारी।
इनकी आय पक्की हो, इसकी हो अब तैयारी।
किसान बन खेती में, गुजारी हमने उम्र सारी।
कृषक जीवन में आऐ, एक से एक संकट भारी।
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