कुर्सी पर कविता :- ओ प्यारी कुर्सी | Kursi Par Kavita
कुर्सी तो लगभग हर घर में होती है और आप सभी उसे देखते भी होंगे। लेकिन एक कवि उस किस तरह से देखता है आइये जानते हैं हरीश चमोली जी की ( Kursi Par Kavita ) कुर्सी पर कविता ” ओ प्यारी कुर्सी “
कुर्सी पर कविता
कुर्सी-कुर्सी, ओ प्यारी कुर्सी।
लकड़ी की तुम न्यारी कुर्सी।
चार पाईयाँ संग दो हत्थे होते।
कभी नहीं हम, तुमको धोते।
पानी से तुम्हारा,रंग है जाता।
हमको बेरंग,नहीं कुछ भाता।
पीठ पे सहारा,जब भी पाता।
फिर आराम से, बैठ मै जाता।
तुम्हे शायद,परिवार भी भाते।
हम जैसे ही कुछ,रिश्ते-नाते।
चार पाईयें हों चार भाई जैसे।
दो हत्थे हों बाबा- आई जैसे।
पीछे की टेक में, हों दादा बैठे।
कोई लेकर हों नेक, इरादा बैठे।
कहने को ही, निर्जीव हो तुम।
देती हमें सीख, सजीव हो तुम।
मजबूत होती जो, चारों पाई।
फिर न कोई भी, दिक्कत आई।
कभी चार में एक, पाई जो टूटी।
फिर सबकी ही, किस्मत फूटी।
दादा का जब भी, सहारा होता।
उनके बिना नहीं, गुजारा होता।
माँ-बाप दोनों, हत्थों में दिखे।
पाईयों में संतन, अस्तित्व छिपे।
अगर सब कुछ ही ठीक से चले।
तब एकता की सीख, हमें मिले।
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मेरा नाम हरीश चमोली है और मैं उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल जिले का रहें वाला एक छोटा सा कवि ह्रदयी व्यक्ति हूँ। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक है और मैं अपनी सकारात्मक सोच से देश, समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जीवन के किसी पड़ाव पर कभी किसी मंच पर बोलने का मौका मिले तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।
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