Rashmirathi Karna Vadh भाग 3

आह! यह युग्म दो अद्भुत नरों का,
महा मदमत्त मानव कुञ्जरों का;
नृगुण के मर्तिमय अवतार ये दो,
मनुक-कुल के सुभग शृङ्गार ये दो।

परस्पर हो कहीं यदि एक पाते,
ग्रहण कर शील की यदि टेक पाते,
मनुजता को न क्या उत्थान मिलता?
अनूठा क्या नहीं वरदान मिलता?

मनुज की जाति का, पर, शाप है यह,
अभी बाक़ी हमारा पाप है यह,
बड़े जो भी कुसुम कुछ फूलते हैं,
अहंकृति में भ्रमित हो भूलते हैं।

नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते,
झगड़ कर विश्व का संहार करते।
जगत् को डालकर निःशेष दुख में,
शरण पाते स्वयं भी काल-मुख में।

चलेगी यह जगह की क्रान्ति कबतक?
रहेगी शक्ति-वञ्चित शान्ति कबतक?
मनुज मनुजत्व से कबतक लड़ेगा?
अनल वीरत्व से कबतक झड़ेगा?

विकृति जो प्राण में अङ्गार भरती,
हमें रण के लिए लाचार करती,
घटेगी तीव्र उसकी दाह कब तक?
मिलेगी अन्य उसको राह कब तक?

हलाहल का शमन हम खोजते हैं,
मगर, शायद, विमन हम खोजते हैं।
बुझाते हैं दिवस में जो जहर हम,
जगाते फूंक उसको रात भर हम।

क्रिया कुञ्चित, विवेचन व्यस्त नर का,
हृदय शत भीति से सन्त्रस्त नर का।
महाभारत मही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।

चल रहा महाभारत का रण,
जल रहा धरित्री का सुहाग,
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही
नर के भीतर की कुटिल आग।

बाजियों – गजों की लोथों में
गिर रहे मनुज के छिन्न अङ्ग,
बह रहा चतुष्पद और द्विपद
का रुधिर मिश्र हो एक सङ्ग।

गत्वर, गैरेय, सुधर भूधर-से
लिये रक्त -रञ्जित शरीर,
थे जूझ रहे कौन्तेय – कर्ण
क्षण-क्षण करते गर्जन गभीर ।

दोनों रणकुशल धनुर्धर नर,
दोनों समबल, दोनों समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोघ
थी विशिख-वृष्टि हो रही व्यर्थ ।।

इतने में शर के लिए कर्ण ने
देखा जो अपना निषङ्ग,
तरकस में फुङ्कार उठा,
कोई प्रचण्ड विषधर भुजङ्ग,

कहता कि “कर्ण! मैं अश्वसेन
विश्रुत भुजगों का स्वामी हूँ,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम,
तेरा बहुविधि हितकामी हूँ

“बस, एक बार कर कृपा धनुष पर
चढ़ शरव्य तक जाने दे,
इस महाशत्रु को अभी तुरत
स्यन्दन में मुझे सुलाने दे।

कर वमन गरल जीवन भर का
सञ्चित प्रतिशोध उतारूँगा,
तु मुझे सहारा दे, बढ़कर
मैं अभी पार्थ को मारूँगा।”

राधेय जो हँसकर बोला,
“रे कुटिल ! बात क्या कहता है?
जय का समस्त साधन नर की
अपनी बाँहों में रहता है।

उस पर भी साँपों से मिलकर
मैं मनुज, मनुज से युद्ध करूँ?
जीवन भर जो निष्ठा पाली,
उससे आचरण विरुद्ध करूँ?

तेरी सहायता से जय तो मैं
अनायास पा जाऊँगा
आनेवाली मानवता को
लेकिन, क्या मुख दिखलाऊँगा?

संसार कहेगा, जीवन का
सब सुकृत कर्ण न क्षार किया;
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का
पापी न साहाय्य लिया।

“रे अश्वसेन! तेरे अनेक
वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत
बसते पुर – ग्राम – घरों में भी।

ये नर-भुजङ्ग मानवता का
पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच
साहाय्य सर्प का लेते हैं।

“ऐसा न हो कि इन साँपों में
मेरा भी उज्ज्वल नाम चढ़े।
पाकर मेरा आदर्श और
कुछ नरता का यह पाप बढ़े।

अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु,
सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता
इस जीवन भर ही तो है।

“अगला जीवन किसलिए भला,
तब हो द्वेषान्ध बिगाडूँ मैं?
साँपों की की जाकर शरण
सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूँ मैं?

जा भाग, मनुज का सहज शत्रु,
मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलङ्क,
अपने पर नहीं लगा सकता।”

काकोदर को कर विदा कर्ण
फिर बढ़ा समर में गर्जमान,
अम्बर अनन्त झङ्कार उठा,
हिल उठे निर्जरों के विमान।

तूफ़ान उठाये चला कर्ण
बल से धकेल अरि के दल को,
जैसे प्लावन की धार बहाये
चले सामने के जल को।

पाण्डव-सेना भयभीत भागती
हुई जिधर भी जाती थी।
अपने पीछे दौड़ते हुए
वह आज कर्ण को पाती थी।

रह गयी किसी के भी मन में
जय की किञ्चित भी नहीं आस,
आखिर, बोले भगवान् सभी को
देख व्यग्र, व्याकुल, हताश।

“अर्जुन! देखो, किस तरह कर्ण
सारी सेना पर टूट रहा,
किस तरह पाण्डवों का पौरुष
होकर अशङ्क वह लूट रहा।

देखो जिस तरफ़, उधर उसके
ही बाण दिखायी पड़ते हैं,
बस, जिधर सुनो, केवल उसके ।
हुंकार सुनायी पड़ते हैं

“कैसी करालता! क्या लाघव!
कितना पौरुष! कैसे प्रहार!
किस गौरव से वह वीर द्विरद
कर रहा समर-वन में विहार!

व्यूहों पर व्यूह फटे जाते,
संग्राम उजड़ता जाता है
ऐसी तो नहीं कमल वन में
भी कुञ्जर धूम मचाता है।

“इस पुरुष-सिंह का समर देख
मेरे तो हुए निहाल नयन,
कुछ बुरा न मानो, कहता हूँ,
मैं आज एक चिर-गूढ़ वचन।

कर्ण के साथ तेरा बल भी
मैं खूब जानता आया हूँ,
मन-ही-मन तुझ से बड़ा वीर,
पर इसे मानता आया हूँ।

‘औ’ देख चरम वीरता आज तो
यही सोचता हूँ मन में,
है भी कोई, जो जीत सके
इस अतुल धनुर्धर को रण में?

मैं चक्र सुदर्शन धरूँ और
गाण्डीव अगर तू तानेगा,
तब भी, शायद ही, आज कर्ण
आतङ्क हमारा मानेगा।

“यह नहीं देह का बल केवल,
अन्तर्नभ के भी विवस्वान्,
हैं किये हुए मिलकर इसको
इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान।

सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर
यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है।
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज
ज्योतियों के जग का अधिकारी है।

‘कर रहा काल – सा घोर समर,
जय का अनन्त विश्वास लिये,
है घूम रहा निर्भय, जाने,
भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये!

जब भी देखो, तब आँख गड़ी
सामने किसी अरिजन पर है,
भूल ही गया है, एक शीश
इसके अपने भी तन पर है।

‘अर्जुन! तुम भी अपने समस्त
विक्रम – बल का आह्वान करो,
अर्जित असंख्य विद्याओं का
हो सजग हृदय में ध्यान करो।

जो भी हो तुममें तेज, चरम पर
उसे खींच लाना होगा,
तैयार रहो, कुछ चमत्कार
तुमको भी दिखलाना होगा।”

दिनमणि पश्चिम की ओर ढले
देखते हुए संग्राम घोर,
गरजा सहसा राधेय, न जाने,
किस प्रचण्ड सुख में विभोर।

“सामने प्रकट हो प्रलय! फाड़
तुझको मैं राह बनाऊँगा,
जाना है तो तेरे भीतर
संहार मचाता जाऊँगा।

“क्या धमकाता है काल? अरे,
आ जा, मुट्ठी में बन्द करूँ,
छुट्टी पाऊँ, तुझको समाप्त
कर दूँ, निज को स्वच्छन्द करूँ।

ओ शल्य! हयों को तेज करो,
ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहाँ,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों
चुनकर सारे वीर जहाँ।

“हो शस्त्रों का झन-झन निनाद,
दन्तावल हों चिंग्घार रहे,
रण को कराल घोषित करके
हों समरशूर हुङ्कार रहे।

कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड,
उठता हो आर्तनाद क्षण-क्षण,
झनझना रही हों तलवारें;
उड़ते हों तिग्म विशिख सन-सन।

‘संहार देह धर खड़ा जहाँ
अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण गर्जन में जहाँ रोर
ताण्डव का डूबा जाता हो।

ले चलो, जहाँ फट रहा व्योम,
मच रहा जहाँ पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैठ
छोड़ना मुझे है आज प्राण।’

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