Rashmirathi Karna Vadh भाग 2
रथ सजा, भेरियाँ घमक उठीं,
गहगहा उठा अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण
क्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल ।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु,
उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण
को लिए क्षुब्ध सैनिक समूह।
हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर,
दन्तावल का वृंहित अपार,
टंकार धनुर्गुण की भीषण,
दुर्मद रणशूरों की पुकार।
खलमला उठा ऊपर खगोल,
कलमला उठा पृथ्वी का तन,
सन-सन कर उड़ने लगे विशिख,
झनझना उठीं असियाँ झनझन।
तालोच्च – तरङ्गावृत बुभुक्षु – सा
लहर उठा सङ्गर समुद्र,
या पहन ध्वंस की लपट लगा
नाचने समर में स्वयं रुद्र
हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना
प्रज्वलित मर्त्य जन होता है
सुरपति से छले हुए नर का
कैसा प्रचण्ड रण होता है
अङ्गार-वृष्टि पा धधक उठे
जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की गति
पुजित जैसे नवनीत मसृण,
यम के समक्ष जिस तरह नहीं
चल पाता बद्ध मनुज का वश,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही
बाणों से विद्ध, विवश।
भागने लगे नरवीर छोड़ वह
दिशा जिधर भी झुका कर्ण;
भागे जिस तरह लवा का दल
सामने देख रोषण सुपर्ण।
‘रण में क्यों आये आज?’ लोग
मन-ही-मन में पछताते थे,
दूर से देख कर भी उसको,
भय से सहमे सब जाते थे।
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध,
राधेय गरजता था क्षण-क्षण।
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का,
व्यूह लरज़ता था क्षण-क्षण ।
अरि की सेना को विकल देख,
बढ़ चला और कुछ समुत्साह;
कुछ और समुद्वेलित होकर,
उमड़ा भुज का सागर अथाह ।
गरजा अशङ्क हो कर्ण, “शल्य!
देखो कि आज क्या करता हूँ,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही,
जीवित किस तरह पकड़ता हूँ।
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन
का जय-तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य
जय की, रण-बीच बजा करके।
इतने में, कुटिल नियति – प्रेरित
पड़ गये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक
पर पड़े टूट जिस तरह बाज़ ।
लेकिन, दोनों का विषम युद्ध,
क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठिर
की मुनि-कल्प, मृदुल काया।
भागे वे रण को छोड़, कर्ण ने
झपट दौड़कर गहा ग्रीव,
कौतुक से बोला, “महाराज!
तुम तो निकले कोमल अतीव ।
हाँ, भीरु नहीं, कोमल कहकर
ही, जान बचाये देता हूँ।
आगे की खातिर एक युक्ति
भी सरल बताये देता हूँ।
“हैं विप्र आप, सेविये धर्म,
तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,
क्या काम साधुओं का, कहिये,
इस महाघोर, घातक रण में?
मत कभी क्षात्रता के धोखे,
रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड़
की झपटों से खेला करिये।”
भागे विपन्न हो समर छोड़
ग्लानि में निमज्जित धर्मराज,
सोचते, ‘कहेगा क्या मन में
जानें, यह शूरों का समाज?
प्राण ही हरण करके रहने
क्यों नहीं हमारा मान दिया?
आमरण ग्लानि सहने को ही
पापी न जीवन – दान दिया।”
समझे न हाय, कौन्तेय! कर्ण ने
छोड़ दिये किसलिए प्राण,
गरदन पर आकर लौट गयी
सहसा, क्यों विजयी की कृपाण?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा,
कर्ण ने वचन धर्म का पाल दिया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे
माँ के अञ्चल में डाल दिया।
कितना पवित्र यह शील! कर्ण
जब तक भी रहा खड़ा रण में,
चेतनामयी माँ की प्रतिमा
घूमती रही तब तक मन में।
सहदेव, युधिष्ठिर, नकुल,
भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हँस कर उसने
भीतर से कुछ इङ्गित पाकर।
देखता रहा सब शल्य, किन्तु,
जब इसी तरह भागे पवितन,
बस होकर वह चकित, कर्ण की
ओर देख, यह परुष वचन,
“रे सूतपुत्र! किसलिए विकट
यह कालपृष्ठ धनु धरता है?
मारना नहीं है तो फिर क्यों,
वीरों को घेर पकड़ता है?
“संग्राम विजय तू इसी तरह
सन्ध्या तक आज करेगा क्या?
मारेगा अरियों को कि उन्हें
दे जीवन स्वयं मरेगा क्या?
रण का विचित्र यह खेल,
मुझे तो समझ नहीं कुछ पड़ता है,
कायर! अवश्य कर याद पार्थ की,
तू मन ही मन डरता है।”
हँसकर बोला राधेय, “शल्य!
पार्थ की भीति उसको होगी,
क्षयमान्, क्षणिक, भंगुर शरीर
पर मृषा प्रीति जिसको होगी।
इस चार दिनों के जीवन को,
मैं तो कुछ नहीं समझता हूँ,
करता हूँ वही, सदा जिसको
भीतर से सही समझता हूँ।
“पर, ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु,
अपने इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हँस देता हूँ,
चञ्चल किस अन्तर के सुख से;
यह कथा नहीं अन्तःपुर की,
बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर-समान,
सुख-सहित, मौन सहने की है।
“सब आँख मूंद कर लड़ते हैं,
जय इसी लोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता है कोई,
ऊँचा सद्धर्म निभाने को।
सबके समेत पङ्किल सर में,
मेरे भी चरण पड़ेंगे क्या?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के,
आत्मा का तेज हरेंगे क्या?
“यह देह टूटनेवाली है, इस
मिट्टी का कब तक प्रमाण?
मृत्तिका छोड़ ऊपर नभ में
भी तो ले जाना है विमान।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल
में सोपान बनाने को,
ये चार फूल फेंके मैंने,
ऊपर की राह सजाने को।
“ये चार फूल हैं मोल किन्हीं
कातर नयनों के पानी के.
ये चार फूल प्रच्छन्न दान हैं
किसी महाबल दानी के।
ये चार फूल, मेरा अदृष्ट था
हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फूल पाकर प्रसन्न
हँसते होंगे अन्तर्यामी।
“समझोगे नहीं शल्य इसको,
यह करतब नादानों का है,
यह खेल जीत से बड़े किसी,
मक़सद के दीवानों का है।
जानते स्वाद इसका वे ही,
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया
से अलग खड़े जो जीते हैं।”
समझा न, सत्य ही, शल्य इसे,
बोला-“प्रलाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर,
बल हो, तो अपना धनुष धरो।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा
दूर से दिखायी पड़ती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर
आवाज सुनायी पड़ती है।
“क्या वेगवान हैं अश्व!
देख विद्युत् शरमायी जाती है,
आगे सेना छंट रही, घटा
पीछे से छायी जाती है।
राधेय! काल यह पहुँच गया,
शायक सन्धानित तूर्ण करो
थे विकल सदा जिसके हित,
वह लालसा समर की पूर्ण करो।”
पार्थ को देख उच्छल-उमङ्ग
पूरित उर – पारावार हुआ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित
अन्तक – सा भीमाकार हुआ।
बोला, “विधि ने जिस हेतु पार्थ!
हम दोनों का निर्माण किया,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व
का हम दोनों ने पान किया।
“जिस दिन के लिए किये आये,
हम दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्य से आज जन्म
जन्मों का निर्धारित वह क्षण।
आओ, हम दोनों विशिख-वह्रि
पूजित हो जयजयकार करें,
मर्मच्छेदन से एक दूसरे का
जी भर सत्कार करें।
“पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से
अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को
आज यहीं सोना होगा।
हो गया बड़ा अतिकाल,
आज निर्णय हमें कर लेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक,
काट कर यहीं धर देना है।”
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का,
दहक उठा रविकान्त-हृदय,
बोला, “रे सारथि-पुत्र! किया
तूने, सत्य ही योग्य निश्चय ।
पर कौन रहेगा यहाँ? बात
यह अभी बताये देता हूँ,
धड़ पर से तेरा सीस मूढ़ !
ले, अभी हटाये देता हूँ।”
यह कह अर्जुन ने तान कान तक,
धनुष बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को,
हत ही उसने अनुमान किया।
पर, कर्ण झेल वह महा विशिख,
कर उठा काल-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये,
छा गया निनद से दिशाकाश।
बोला, “शाबाश, वीर अर्जुन !
यह खूब गहन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अगर आन
कर मुझ पर वह बेकार रहा।
मत कवच और कुण्डल विहीन,
इस तन को मृदुल कमल समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थल की,
अब भी दुर्भेद्य अचल समझो।
“अब लो मेरा उपहार, यही
यमलोक तुम्हें पहुँचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें
बस, इसी बार मिल जायेगा।”
कह इस प्रकार राधेय
अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुङ्कार उठा घातिका शक्ति
विकराल शरासन पर धरके।
सँभलें जब तक भगवान्, नचायें
इधर-उधर किञ्चित् स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विद्ध,
मुर्च्छित हो गिरा पृथानन्दन।
कर्ण का देख यह समर – शौर्य
सङ्गर में में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, “अरे
पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ?”
पर नहीं, मरण का तट छूकर,
हो उठा अचिर अर्जुन- प्रबुद्ध
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण
के साथ मचाने द्विरथ-युद्ध।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों,
करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खड़ी,
लेकिन, दोनों की जीत हार ।
इस ओर कर्ण मार्तण्ड – सदृश,
उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय,
हो उठा समर में मूर्त्तिमान।
जूझना एक क्षण छोड़, स्वतः,
सारी सेना विस्मय – विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी
दो शितिकण्ठों का विकट युद्ध ।
है कथा, नयन का लोभ नहीं,
संवृत कर सके स्वयं सुरगण,
भर गया विमानों से तिल-तिल,
कुरुभू पर कलकल-नदित गगन।
थी रुकी दिशा की साँस, प्रकृति
के निखिल रूप तन्मय-गभीर,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ,
नीचे नदियों का अचल नीर।
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