Rashmirathi Karna Vadh भाग 4

समझ में शल्य की कुछ भी न आया,
हयों को जोर से उसने भगाया।
निकट भगवान् के रथ आन पहुँचा,
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुँचा?

अगम की राह, पर, सचमुच अगम है,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है।
न जानें, न्याय भी पहचानती है,
कुटिलता ही कि केवल जानती है?

रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका,
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका,
अबाधित दान का आधार था जो,
धरित्री का अतुल शृङ्गार था जो,

क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को,
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को?
रुधिर के पङ्क में रथ को जकड़ कर,
गयी वह बैठ चक्के को पकड़ कर ।

लगाया ज़ोर अश्वों ने न थोड़ा,
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोड़ा।
वृथा साधन हुए जब सारथी के,
कहा लाचार हो उसने रथी से।

“बड़ी राधेय! अद्भुत बात है यह,
किसी दुःशक्ति का ही घात है यह।
जरा-सी कीच में स्यन्दन फँसा है,
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा फँसा है;

“निकाले से निकलता ही नहीं है,
हमारा जोर चलता ही नहीं है।
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,
लगा अपनी भुजा का जोर देखो।’

हँसा राधेय कर कुछ याद मन में,
कहा, “हाँ, सत्य ही, सारे भुवन में।
विलक्षण बात मेरे ही लिए है,
नियति का घात मेरे ही लिए है।

“मगर है ठीक, किस्मत ही फँसे जब,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से,
निकाले कौन उसको बाहुबल से?”

उछल कर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,
फँसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर,
लगा ऊपर उठाने ज़ोर करके,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके।

मही डोली, सलिल-आगार डोला,
भुजा के ज़ोर से संसार डोला।
न डोला, किन्तु, जो चक्का फँसा था,
चला वह जा रहा नीचे धंसा था।

विपद् में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर,
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले
“खड़ा है देखता क्या मौन, भोले?

“शरासन तान, बस, अवसर यही है,
घड़ी फिर और मिलने को नहीं है।
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे।”

श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन,
विनय में ही मगर, बोला अकिञ्चन।

“नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा?” ।
हँसे केशव, “वृथा हठ ठानता है।
अभी तू धर्म को क्या जानता है?

“कहूँ जो, पाल उसको, धर्म है यह।
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह।
क्रिया को छोड़ चिन्तन में फँसेगा,
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा।”

भला क्यों पार्थ कालाहार होता?
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता?
सभी दायित्व हरि पर डाल करके,
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके,

लगा राधेय को शर मारने वह,
विपद् में शत्रु को संहारने वह,
शरों से बेधने तन को, बदन को,
दिखाने वीरता निःशस्त्र जग को।

विशिख-सन्धान में अर्जुन निरत था,
खड़ा राधेय निःसम्बल, विरथ था,
खड़े निर्वाक सब जन देखते थे,
अनोखे धर्म का रण देखते थे।

नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते,
हृदय में धर्म का टूक ध्यान धरते।
समय के योग्य धीरज को सँजोकर,
कहा राधेय न गम्भीर होकर।

“नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो।
बहुत खेले, जरा विश्राम तो लो।
फँसे रथचक्र को जब तक निकालूँ,
धनुष धारण करूँ, प्रहरण सँभालूँ,

“रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम,
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम।
नहीं अर्जुन! शरण मैं माँगता हूँ,
समर्थित धर्म से रण माँगता हूँ

“कलङ्कित नाम मत अपना करो तुम।
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम,
विजय तन की घड़ी भर की दमक है।
इसी संसार तक उसकी चमक है।

“भुवन की जीत मिटती है भुवन में,
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में?
शरण केवल उजागर धर्म होगा,
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा।”

उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को,
निहारा पार्थ ने हो खिन हरि को।
मगर, भगवान् किञ्चित् भी न डोले,
कुपित हो वज्र-सी यह बात बोले ।

“प्रलापी! ओ उजागर धर्म वाले!
बड़ी निष्ठा, बड़े बड़े सत्कर्म वाले!
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन,
कहाँ पर सो रहा था धर्म उस दिन?

“हलाहल भीम को जिस दिन पड़ा था,
कहाँ पर धर्म यह उस दिन धरा था?
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,
हँसा था धर्म ही तब क्या भुवन में?

“सभा में द्रौपदी को खींच लाके,
सुयोधन की उसे दासी बताके,
सुवामा-जाति को आदर दिया जो,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो,

“नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था,
उजागर, शीलभूषित धर्म ही धर्म ही था।
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन,
हुए पाण्डव यती निष्काम जिस दिन,

“चले वनवास को तब धर्म था वह,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह ।
अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे,
असल में, धर्म से ही थे गिरे वे।

“बड़े पापी हुए जो ताज माँगा,
किया अन्याय; अपना राज माँगा।
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं?
अघी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं?

“हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे?
कि देंगे धर्म को बल अन्य जन भी?
तजेंगे क्रुरता-छल अन्य जन भी?

“न दी क्या यातना इन कौरवों ने?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था,
दुरित निज मित्र का, सत्कर्म ही था।

“किये का जब उपस्थित फल हुआ है,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है,
चला है खोजने तू धर्म रण में,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में।

“शिथिल कर पार्थ! किञ्चित् भी न मन तू।
न धर्माधर्म में पड़ भीरु बन तू।
कड़ा कर वक्ष को, शर मार इसको,
चढ़ा शायक, तुरत संहार इसको।”

हँसा राधेय, “हाँ, अब देर भी क्या?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या?
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों?

“थके बहुविधि स्वयं ललकार करके,
गया थक पार्थ भी शर मार करके,
मगर, यह वक्ष फटता ही नहीं है,
प्रकाशित शीश कटता ही नहीं है।

“शरों से मृत्यु झड़ कर छा रही है,
चतुर्दिक् घेर कर मँडला रही है,
नहीं, पर लीलती वह पास आकर,
रुकी है भीति से अथवा लजाकर ।

“ज़रा तो पूछिये, वह क्यों डरी है?
शिखा दुर्द्धर्ष क्या मुझमें भरी है?
मलिन वह हो रही किसकी दमक से?
लजाती किस तपस्या की चमक से?

“ज़रा बढ़ पीठ पर निज पाणि धरिये,
सहमती मृत्यु को निर्भीक करिये।
न अपने आप मुझको खायगी वह,
सिकुड़ कर भीति से मर जायगी वह।

“कहा जो आपने, सब कुछ सही है,
मगर अपनी मुझे चिन्ता नहीं है।
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूँ,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूँ।

“वृथा है पूछना किसने किया क्या,
जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या!
सुयोधन था खड़ा कल तक जहाँ पर,
न हैं क्या आज पाण्डव ही वहाँ पर?

“उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोड़ा?
किये से कौन कुत्सित कर्म छोड़ा?
गिनाऊँ क्या? स्वयं सब जानते हैं,
जगद्गुरु आपको हम मानते हैं,

“शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन,
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन,
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था।
हरे! कह दीजिये, वह धर्म ही था।

“हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे,
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे.
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था,
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था।

“कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं,
नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं?
कुटिल षड्यन्त्र से रण से विरत कर,
महाभट द्रोण को छल से निहत कर,

“पतन पर दूर पाण्डव जा चुके हैं,
चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं।
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को?
उठा मस्तक, गरज कर बोलने को?

“वृथा है पूछना, था दोष किसका?
खुला पहले गरल का कोष किसका?
ज़हर अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है।

“जहर की कीच में ही आ गये जब,
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब,
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में,
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में?

“सुयोधन को मिले जो फल किये का,
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का, मगर,
पाण्डव जहाँ अब चल रहे हैं,
विकट जिस वासना में जल रहे हैं,

“अभी पातक बहुत करवायगी वह,
उन्हें, जानें, कहाँ ले जायगी वह।
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे,
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे?

“सुयोधन पूत या अपवित्र ही था,
प्रतापी वीर मेरा मित्र मित्र ही था।
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो,
निभाया मित्रता का धर्म था जो।

“नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है,
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है;
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है,
अगर है, तो यही बस, वेदना है।

“वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों?
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूँ,
लिये यह दाह मन में जा रहा

“विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को,
शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को।
अभय हो बेधता जा अङ्ग अरि का,
द्विधा क्या, प्राप्त है, जब सङ्ग हरि का!

“मही! ले सौंपता हूँ आप रथ मैं,
गगन में खोजता हूँ अन्य पथ मैं।
भले ही लील ले इस काठ को तू,
न पा सकती पुरुष विभ्रोट् को तू।

“महा निर्वाण का क्षण आ रहा है,
नया आलोक स्यन्दन आ रहा है,
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके,
कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके

“जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें,
चमकती है किरण की राजि जिसमें;
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है,
विभा के पद्म-सा जो फूलता है।

“रचा मैंने जिसे निज पुण्य-बल से,
दया से, दान से, निष्ठा अचल से;
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो,
हुआ सद्धर्म से अद्भूत है जो;

“न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको,
सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको;
गगन में जो अभय हो घूमता है,
विभा की ऊर्मियों पर झूलता है।

“अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहुँचा,
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुँचा।
विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ,
मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ।

“प्रभा-मण्डल! भरो झङ्कार, बोलो!
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो!
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ,
चढ़ा मैं रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ।”

पढ़िए :- किस्मत पर कविता | Kismat Par Kavita

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