Rashmirathi Karna Vadh भाग 5

गगन में बद्ध कर दीपित नयन को,
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को,
लगा शर एक ग्रीवा में सँभल के,
उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के!

गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर!
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर।
छिटक कर जो उड़ा आलोक तन से,
हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से

रण में, मचा घनघोर हाहाकार रण में।
उठी कौन्तेय की जयकार की जयकार
सुयोधन बालकों-सा रो रहा था!
खुशी से भीम पागल हो रहा था!

सारे, नतानन देवता नभ से सिधारे।
फिरे आकाश से सुरयान सुरयान
छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में,
उदासी छा गयी सारे भुवन में।

अनिल मन्थन व्यथित – सा डोलता था,
न पक्षी भी पवन में बोलता था।
प्रकृति निस्तब्ध थी, यह हो गया क्या?
हमारी गाँठ से कुछ खो गया क्या?

मगर, कर भङ्ग इस निस्तब्ध लय को,
गहन करते हुए कुछ और भय को,
जयी उन्मत्त हो हुङ्कारता था,
उदासी के हृदय को फाड़ता था।

युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से,
प्रफुल्लित, हो बहुत दुर्लभ विजय से,
दृगों में मोद के मोती सजाये,
बड़े ही व्यग्र हरि के पास आये।

कहा, “केशव! बड़ा था त्रास मुझको,
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको,
कि अर्जुन यह विपद् भी हर सकेगा,
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा।

इसी के त्रास में अन्तर पगा था,
हमें वनवास में भी भय लगा था।
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था?
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था।

“बली योद्धा बड़ा विकराल था वह!
हरे! कैसा भयानक काल था वह?
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे!
शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे!

“मिला कैसे समय निर्भीत है यह?
हुई सौभाग्य से ही जीत है यह।
नहीं यदि आज ही वह काल सोता,
न जानें, क्या समर का हाल होता?”

उदासी में भरे भगवान् बोले,
“न भूलें आप केवल जीत को ले।
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है।
विभा का सार शील पुनीत में है।

“विजय क्या .जानिये, बसती कहाँ है?
विभा उसकी अजय हँसती कहाँ है?
भरी वह जीत के हुङ्कार में है,
छिपी अथवा लहू की धार में है?

“हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में?
मिला किसको विजय का ताज रण में?
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या?
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या?

“समस्या शील की, सचमुच गहन है।
समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है।
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है।
जिसे तजता, उसी को मानता है।

“मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह ।
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बड़ा ब्रह्मण्य था, मन से यती था।

“हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
दलित-तारक, समुद्धारक त्रिया का।
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था,
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था।

“किया किसका नहीं कल्याण उसने?
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने?
जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर
मरा वह आज रण में निःस्व होकर।

“उगी थी ज्योति जग को तारने को।
न जनमा था पुरुष वह हारने को।

मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित,
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित।
“दया कर शत्रु को भी त्राण देकर,
खुशी मित्रता पर प्राण देकर,

गया है कर्ण भू को दीन करके,
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके।
“युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह,
विपक्षी था, हमारा काल था वह।

अहा! वह शील में कितना विनत था?
दया में, धर्म में कैसा निरत था!
“समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,
पितामह की तरह सम्मान करिये।
मनुजता का नया नेता उठा है।
जगत् से ज्योति का जेता उठा है!”

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